मैं आरम्भ हूं और अंत भी।
मैं डाकू हूं और संत भी।।
मैं सृजन हूं ,संहार भी
मैं प्यार हूं और अहंकार भी
मैं नदी हूं और बाढ़ भी
नंदिनी भी मैं ही हूं,और वो असंतुलित सा सांड भी।
मंदिरों की प्रार्थनाओं में हूं मैं और मस्जिदों की अज़ान भी।
इतनी बड़ी कविता पढ़ रहे हो तुम्हारा कुछ नाम तो होगा?
सुबह सुबह दरवाजे पर आकर खड़े हो,कुछ काम तो होगा?
क्या मैंने ही तुम्हे बनाया है,सोच कर ज़रा परेशान हूं मैं।
तुम्हारा तो पता नहीं,पर औरों के लिए भगवान हूं मैं।
भगवान होना तो आजकल नया फैशन है।
भरे पड़े हैं सारे चैनलों पर ,इनकी तो अलग ही टशन है।
बड़ी बड़ी बातें करने से कोई भगवान नहीं होता।
और अगर भगवान सचमुच यहां होता तो इन्हे देख कर रोता।
वेश भूषा और बातचीत की शैली से लगते अच्छे फनकार हो तुम।
कुछ भी हो,पर अपने किरदार के लिए सचमुच तैयार हो तुम।
अंदर आ जाओ,ज़रा और गहरे उतरते हैं।
खुद को ढंग से जानते नहीं,पर तुम्हे ज़रा परखते हैं।
चलो माना भगवान हो तुम,या फिर उसके फरमान हो तुम।
भक्त तुम्हारे हैं मुसीबत में,क्या इस बात से अनजान हो तुम?
क्यों अच्छे लोग सताए जाते हैं,
जुल्मी क्यों आगे बाढ़ जाते हैं?
निर्दोष क्यों मारे जाते हैं?
अधर्मी क्यों पूजे जाते हैं?
क्यों पैसे के पीछे हम जान गवाते हैं?
ये रोग क्यों हमें सताते हैं?
जिस स्वर्ग को ढूंढ रहे हैं हम,तुम चुटकी में उस बना सकते हो।
भगवान बनने कि होड़ मची है,क्या मुझे भगवान बना सकते हो?
थे भगवान सन्न,अचरज में थे धरती गगन।
ब्रह्माण्ड में गुंजायमान प्रभु के लिए उस पंखे की थी शोर बड़ी।
सामने बैठा था एक इंसान और इन प्रश्नों में थी उसकी नादानी खड़ी।
प्रश्न तुम्हारे अच्छे हैं,और लगते भी काफी सच्चे हैं।
लगता है मान लिया तुमने की भगवान बुरे,और शैतान ही सारे अच्छे हैं।
जो परीक्षाओं से न घबराते हैं,
वो ही तप कर कुंदन बन जाते हैं।
विपदाओं से हम जब घिर जाते हैं,
भगवान को आवाज़ लगाते हैं।
सुख दुख में जो रहे समान,वो ही योगी कहलाते हैं।
सदैव धर्म की राह थाम जो चलते जाते हैं,
सच पूछो तो हर युग में वो भक्त मुझे बस भाते हैं।
अधर्मी आगे बढ़ कर भी न चैन से सो पाते हैं।
रोज़ मरते हैं डर डर कर और डर से ही प्राण गावातें हैं।
आधी तस्वीर देख कर ही हम अपनी कहानियां बनाते हैं।
अधूरे सच को जान कर ही सीधे निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं।
आंधी और तूफ़ानों में कुछ फल पेड़ों से गिर जाते हैं,
होता यूं ही नहीं कुछ भी जग में,कुछ काम तो वो भी कर जाते हैं।
इंसान की महिमा मंडन कर,जब धर्म से हम डगमगाते हैं।
जल्दी से सब पाने कि खातिर बेहतर भगवान को हम अपनाते हैं।
चमत्कार की आस में जब भगवान पूजे जाते हैं,
कुछ बहरूपिए तब यहां भगवान बन पैसे कमाते हैं।
भौतिक सुखों के पीछे ही बस भागते जाते हैं।
जीवन के अंतिम पड़ाव पर जब सच सामने आते हैं,
तब मृत्यु के भय से, माला लेकर जाप लगाते हैं।
मेरे ही तो अंश हैं सब,और मुझमे ही मिल जाते हैं।
तो फिर क्यों जीवन भर मुझसे ही नजरे चुराते हैं?
सिद्धार्थ और विवेकानंद को भूल,भगवान को बुढ़ापे के लिए बस टाले जाते है।
ये रोग हमें संयमी बनाते हैं,जीवन का मूल्य बताते हैं।
कुछ हो ना हो पर ये हमें भगवान की याद दिलाते हैं।
हां,सच है कि मै स्वर्ग बना सकता हूं,इंद्रासन भी तुम्हे दिला सकता हूं।
असीमित हो इच्छाएं जिनकी वो इंद्रासन में भी कहां खुश रह पाते हैं?
हर रोज़ तो इंसान यह एक स्वर्ग को पाकर भी नए स्वर्ग की खोज में निकल जाते हैं।
हर एक कि अलग पहचान हूं मैं,
सब में ही विद्यमान हूं मैं।
किसी में गणेश,कहीं महेश,तो कहीं बलशाली हनुमान हूं मैं।
आंखे खोले यू ढूंढोगे,फिर तो बस अनजान हूं मैं।
आंखे बंद कर तराशो खुद को,तुम में बैठा भगवान हूं मैं।
वाह बातें तुम्हारी तो सच्ची हैं,तैयारी लगती काफी अच्छी है।
खैर हमें निकलना है,ऑफिस में भी कई भगवान हैं।
रोज़ झेलने पड़ते इनके झूठे से शान है।
बातों से तो लगते आप भले इंसान है, चाय लेकर आता हूं,आखिर आप मेहमान हैं।
हाथों से गिरे उसके बर्तन,
काप रहा था तन बदन।
जिससे बाते कर रहा था वो दीवार पर थी एक रौशनी सी बन।
कर दिया उसने सर्वस्व समर्पण।
देखता रहा बस उस दिव्यता को हो कर सन्न।
देख कर उसे मानो हो रहा था उसका रोम रोम प्रसन्न।
फिर अचानक एक आवाज़ गुंजायमान हुई।
गर्जन सी थी वो,पर जैसे कानों से अमृतपान हुई।
ये बातें तो जानी पहचानी थी,और लगती थी सुनी सुनी कहीं।
पर अब जाकर जाना था उसने इनका अर्थ सही।
मै आरम्भ हूं और अंत भी।
मै डाकू हूं और संत भी।
रुपए की लालच में भी हूं और तुम्हारा ग्रंथ भी।
मृगतृष्णा में भी मैं ही हूं और धर्मी का पंथ भी।
राजा के दान में हूं मैं,और ब्राह्मण की मैं भिक्षा हूं।
कुछ पाने कि एक इक्षा हूं,तो कहीं पे उन्नत शिक्षा हूं।
गरीब के पसीने की दुर्गंध या अभिमानी की महंगी सी इतर हूं।
ढूंढोगे मुझे क्या मुरतों में,मैं तो तुम्हारे भीतर हूं।